मैं ब्रह्माण्ड सा अपने आधार को आकाश पर पसार के अपना शीश पृथ्वी पर टिका एक टक ताकता रहा उम्र भर अपने क्षितिज की ओर जहाँ से सीमाओं का अंत व प्रारम्भ आभासित होता। पल पल आनंद के निर्माण और विनाश हेतु वहाँ से जन्मता और दूसरी ओर आकर मृत्यु का आभास देता हुआ उस ओर जन्म जाता।
मैं यूँ ही ताकता रहता उस सूर्य के इस ओर जन्मने को बस एक करवट बदलने का समय और वो जन्मा उस ओर।यहाँ पर बस शून्यता से ताकना ही हो पाता बस हो रहा जैसे शिकार कोई स्तंभित हो शिकारी की चमकदार आखों में डूब। अब तो यहाँ बस सूर्योदय का जन्मना ही नहीं बस अब होता सूर्यास्त की भी कोपलों का इस मधुवन में खिलना।वो जो खिला ही रहता है बस मैं उसके हर पल खिले होने के कोण में चला जाता और उसी कोने से ही इसकी डोर थामे रहता ताकि प्रत्येक पल इस सूर्यास्त व सूर्योदय के भ्रामक अंतर में न पड बस इसके साथ साथ हिचकोले खाता रहूँ और खिलता रहूँ पल पल नित नित।
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