Sunday 1 March 2015

चरमराता हिमालय

चरमराता हिमालय :  मौन से थे वो झोंके उस कोने से घूरते हुए की कुछ दिखने जैसा है भी क्या,क्यूँ मेरा हिमालय भाग रहा इधर उधर अनगिनत दिशाओ के पार से लाता है कुछ चिठ्ठीयाँ , खोले बिना ही सन्देश की स्याही की सुगंध मदहोश कर नृत्य करा देती। कभी बना और कभी तोड़ देती है घुंघरू से उठती दुर्लभ प्यास की लय ताल।था यह सुसज्जित उस हिमालय के परों पर नीचे दिखाता स्वर्ग विशाल।धधक रहा यह हिमालय चरमरा रही उसकी हरेक श्रंखला ,प्रत्येक चोटी से फूट पड़ा है अग्नि का वो अदृश्य झरना  है जिसके मुहाने पे मेरा सुसज्जित वितरण कमलदल समान। हो रही हो सुसज्जित प्रत्येक पंखुड़ी सूर्य समान। बांध लिया हिमालय ने अपना व्यापार और मायूस सा निकल रहा यहाँ से बेघर हो पसारने अपने पंख अपार। 



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