Monday 9 February 2015

अपरिचित आकाश

अपरिचित आकाश: कौन से कोने में से झाँकू तेरे होने के मानने मे भी विश्वास नहीं आता ।सिर्फ चर्म के उस पार ही दिखाई देता है ना ।है तो समा क्यों नहीं जाता मुझ में और खींच क्यों नहीं लेता मुझे उस ओर।यूँ ही  हो रहा मैं हिमालय विशाल जैसे कितना भी फैल रहा हूँ फिर भी अनजान तेरे को होने में ।दे देता उधार कुछ क्षण सूर्य को, कुछ हो जाने को ,समुद्र का जल भी ताकता तुझे , ऊपर उठने को ।

No comments:

Post a Comment