नासमझ पत्ता : झाँक रहा था अपनी डाली के उस सूक्ष्म रन्ध्र से मैं ,एैसा
ऊर्जा का अकल्पनीय अतिरेक अहसास जैसे नवजात के कोमल शरीर को जननी से
सुगंधित होता एैसा मैं फूटा अपनी डाली से ,धीमे धीमे मेरा एक एक अंश एक एक
अणु कम्पायमान हुआ उस विचित्र वातावरण की सुगंध से।सम्पूर्ण वृक्ष उत्सव
मना रहा मेरे खिलने का ,डाली डाली मुझ में ममता उडेलती दिखी । बन्धु
पत्तियां कुछ नई कुछ पुरानी कुछ प्रेममय निहारती कुछ ईर्ष्यामय घूरती
रही।सभी मेरी डाली पर अपने स्वघोषित अधिकार की घोषणा करती दिखी।मैं समझा
मेरी ही तो है इस से आना हुआ मेरा, कहाँ यह छोडेगी मुझे ,अकस्मात सकपकाया
मैं, एक बन्धु छोड़ गया अपनी डाली,इधर युवा हुआ मैं अपनी प्रिय शाखा से
स्नेह के स्वप्न से बाहर आता हुआ उधर मेरी प्यारी शाखा का मेरे से भी
स्पर्श लगातार छूटने लगा,पूछा क्यों कुछ ना बोली।मेरा अंश - अंश ,कण-कण
घबराहट से काँप गया कि मेरी शाखा छूटेगी अब क्या करूँगा कैसे क्यों छोड़ेगी
फूट पड़ा सागर मेरा,सहसा अलग कर दिया गया गिरता देख रहा अपने को तुझ से।
समझ हो गयी उत्पन्न अब ना कहुँगा यह मेरी वह मेरा।तुझसे छूटा तेरा यह
पत्ता।
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