Monday 16 February 2015

खामोश चीख

खामोश चीख : हो रहा था धीमे धीमे अपनी कोख के आवरण से बाहर झांकना मेरा ,देखा भी गया बाहरी दीवाली का शोर का तूफान , छीन रहा जैसे मेरी खामोशी का खजाना मुझ से। छुपा के रख ली बटुये मे मेरी कीमती खामोशी की जागीर।निकल पडा तो बाज़ार में खरीदारी करने को सम्भालते हुआ उस कीमती बटुये को जिसमे छुपाई थी मौन की ज़मीन ।देखा सब तरफ चमकदार वस्तुओं का व्यापार,खनखनाहट से ही खिसकता मुर्दा इंसान।फिर आभासा स्वयं का सूनापन लगा भागने बजाने को मैं भी वह खनखनाहट का मृदंग भुला अपनी कीमती धरोहर। समयकाल का प्रहार हो मैं मुह खोल खडा ठगा सा ताकता वो तमाशा , सहसा वो चीत्कार मचाती शान्ति सहसा प्रकटित हुई मेरे बटुये से ।बह पड़ी नीर धार हो पश्चातापी नहा गया उस अग्नि की बारिश में । कुछ शमशानी खामोशी चीखती चीत्कारती मुझ लाश को नया जन्म देती,नयी उमंग भरती समा गई मुझ मे और उछाल दिया मुझे मेरे अपने आकाश में।अब मेरी खामोश शांति की बादल रूपी स्याही दहाडती है मेरे आकाश से  गडगडा के बरसती है मेरे अंबर से मेरे अपनों के हृदय रूपी पन्नों को मेरी बूँद से भिगोने को।निचोड लेना एै आकाश मेरी हरेक बूँद भिगाना हर उस पन्ने को जो पी सकता मेरी भीनी सुगंध।


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