जीवित पाषाण : कहाँ से उदगम हुआ ज्ञात नहीं कहाँ हूँ यह भी दूसरा बताता फिर
भी वहीं हूँ।किसी पर्वत श्रृंखला की कोख से गिर टकरा इधर उधर आ पड़ा कुछ
चोट खाता ,साथ और भी हैं कुछ छोटे कुछ बड़े पाषाण, सहसा ठिठुरन पायी और
बह चले संग नदिया की धार।स्थान छूट गया मेरा ,अज्ञात के भय से कम्पित
दिलासा दिये बह चला कि यह बड़ा पाषाण तो देगा साथ पर बीच राह ही हो गया
सीना तान किनारे ,पूछने पर झिटक दिया साथ ,कडकडा उठा मुझे रहना है यहाँ,
गर्वमंडित खडा रहा किनारे वह एक दम्भी चट्टान।मैं बह चला घिसता अपने और
किनारों की ओर देखता,वह खडे रहे किनारों पर अपने तीक्ष्ण चुभन वाले कोने के
साथ।था बह रहा गीला हो उसी नदी के साथ,मिटा रही मेरे सारे तीक्ष्ण दुर्गुण
रेत पानी के साथ।अब तो वह तीक्ष्णता नहीं रही ,रह गया बस मुझ में सभी
टक्करों की चोटों का आभास।वाह मेरी बाहरी त्वचा भी तराश दी गई,कैसा अदभुत
बदलाव ।वह चुभन कहाँ गई ,यह तो भीतर बाहर के रूपांतरण का होना हुआ
एकसाथ।कहीं पडा हुँ या था ,किनारे ही अब आ लगा था।अब मैं ,कुछ जल कुछ पाषाण
कुछ आकाश हो चुका था ,जब चला था तो सिर्फ पत्थरमय चेतना था,अब विस्तारित
हो तीन तत्वमय हो गया।अरे यह क्या किसी ने उठा लिया, मन्दिर में अरे यह
क्या कुछ बिछड़े पुराने पाषाण कुछ आकृतियुक्त भगवान रूप लिए हैं।बडा
गिडगिडाया अब रोक दिया गया ,अब कोई नहीं सुनेगा मेरी कराह, कैसे कहूं अपने
भाव अब नहीं मेरी आवाज कोई सुनने वाला । कोई जीवित ना रहा ।मुझ जीवित
पाषाण को सुन सके नहीं है कोई सप्राण।लग रहे हैं सब मुझ पाषाण से ज्यादा
पाषाण।
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