Thursday 16 July 2015

खिलता सूर्यास्त

मैं ब्रह्माण्ड सा अपने आधार को आकाश पर पसार के अपना शीश पृथ्वी पर टिका एक टक ताकता रहा उम्र भर अपने क्षितिज की ओर जहाँ से सीमाओं का अंत व प्रारम्भ आभासित होता। पल पल आनंद के निर्माण और विनाश हेतु वहाँ से जन्मता और दूसरी ओर आकर मृत्यु का आभास देता हुआ उस ओर जन्म जाता।
मैं यूँ ही ताकता रहता उस सूर्य के इस ओर जन्मने को बस एक करवट बदलने का समय और वो जन्मा उस ओर।यहाँ पर बस शून्यता से ताकना ही हो पाता बस हो रहा जैसे शिकार कोई स्तंभित हो शिकारी की चमकदार आखों में डूब। अब तो यहाँ बस सूर्योदय का जन्मना ही नहीं बस अब होता सूर्यास्त की भी कोपलों का इस मधुवन में खिलना।वो जो खिला ही रहता है बस मैं उसके हर पल खिले होने के कोण में चला जाता और उसी कोने से ही इसकी डोर थामे रहता ताकि प्रत्येक पल इस सूर्यास्त व सूर्योदय के भ्रामक अंतर में न पड बस इसके साथ साथ हिचकोले खाता रहूँ और खिलता रहूँ पल पल नित नित।

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Sunday 17 May 2015

अवाक् ह्रदय

वो हृदय सुन्दर सा मनोरम दृश्य ताकता बाहर भीतर की शुद्धता से सम्पूर्ण समझता की यह ही बाहर भी है फैला हुआ प्रेम का सागर शुद्ध सहसा कुछ अटपटा सा झटका और सहम गया वो अबोध बालक ताकता रह गया उस आघात के ज़ख़्म को ।न समझ पाने का बोध और असमंजस में डाल देता है कैसा वहाँ ,यहाँ तो प्रेम का महासागर सभी की प्रेम नदी को समाने में समर्थ होता दिखता और इस शुद्धतम पुष्प को वह नोचने लूटने छीनने मारने की होड़ में तोड़ते जा रहे सारी सीमाये और वह देखता जा रहा अवाक् हो की हो क्यों रहा इसके साथ यह तो इसकी प्रकृति भी न थी न ही यह दिया था न ऐसा होना था कही भी यह आया कहा से ।ऐसे कई अनगिनत प्रश्नो के बीच में दबा सा अपने को असहाय सा महसूस करता वो ह्रदय सोचता कहा हु क्यों हु ऐसा क्यों हु कही कुछ न कह पाता न कर पाता बस झेले चला जा रहा आक्रामकता का नित नया प्रपंच ।इसे तो झुकना ही आता है प्रेम में और जो आता  रौंद के चला देता,कोई ह्रदय से लगा के इसकी सुगंध से आनंदित क्यों नहीं हो पाता शायद उनके अभी भी बच्चा होने में कई युग बाकी हैं ।


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Sunday 1 March 2015

चरमराता हिमालय

चरमराता हिमालय :  मौन से थे वो झोंके उस कोने से घूरते हुए की कुछ दिखने जैसा है भी क्या,क्यूँ मेरा हिमालय भाग रहा इधर उधर अनगिनत दिशाओ के पार से लाता है कुछ चिठ्ठीयाँ , खोले बिना ही सन्देश की स्याही की सुगंध मदहोश कर नृत्य करा देती। कभी बना और कभी तोड़ देती है घुंघरू से उठती दुर्लभ प्यास की लय ताल।था यह सुसज्जित उस हिमालय के परों पर नीचे दिखाता स्वर्ग विशाल।धधक रहा यह हिमालय चरमरा रही उसकी हरेक श्रंखला ,प्रत्येक चोटी से फूट पड़ा है अग्नि का वो अदृश्य झरना  है जिसके मुहाने पे मेरा सुसज्जित वितरण कमलदल समान। हो रही हो सुसज्जित प्रत्येक पंखुड़ी सूर्य समान। बांध लिया हिमालय ने अपना व्यापार और मायूस सा निकल रहा यहाँ से बेघर हो पसारने अपने पंख अपार। 



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Thursday 19 February 2015

नेत्रद्वारीय ब्रह्मांड

नेत्रद्वारीय ब्रह्मांड : यह ढूंढता था वो हमेशा से मेरा तूफान की थमे कहीं जाकर किसी सूर्य के गर्भ में।हो गया अब इस निष्पथ तूफान का अमार्गीय दिशाओं की नाव पर यात्रा का आयोजन । यह ताकता था  अचरझ से इन नेत्रों की तलहटी से उस आकाशीय द्वीप की हरियाली । धुंधमय था वह सागर उस पार ,मारता रहता है हाथपैर इन नयनों की लहरों के थपेड़ों में,यह सोच हो जाती है यह अग्निमय तलहटी पार। धीरे धीरे एक स्वरणिम रस्सी लटकाई उसने चुपके से, उस रस्सी का चुम्बन हुआ इन नेत्रों के हृदय केंद्र, और खींच लिए इन चक्षुओं के सुलगते कोयले । दोनों कम्मपायमान हो खिंचने लगे उस उपरिलिखित कवितामय लोक। हो गया था यह तूफान उत्साहित देख यह नवीन भूमिहीन आधार।झाँक रहा है यह  नेत्रों के द्वार से उस पार के महासूर्य के प्रकाशित पुष्पवाटिका की सुगंध को । इस नेत्र की सुरंगें निरंतर ले जाती उस ब्रह्मांड खेलने उस सागर के आर पार।

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Monday 16 February 2015

खामोश चीख

खामोश चीख : हो रहा था धीमे धीमे अपनी कोख के आवरण से बाहर झांकना मेरा ,देखा भी गया बाहरी दीवाली का शोर का तूफान , छीन रहा जैसे मेरी खामोशी का खजाना मुझ से। छुपा के रख ली बटुये मे मेरी कीमती खामोशी की जागीर।निकल पडा तो बाज़ार में खरीदारी करने को सम्भालते हुआ उस कीमती बटुये को जिसमे छुपाई थी मौन की ज़मीन ।देखा सब तरफ चमकदार वस्तुओं का व्यापार,खनखनाहट से ही खिसकता मुर्दा इंसान।फिर आभासा स्वयं का सूनापन लगा भागने बजाने को मैं भी वह खनखनाहट का मृदंग भुला अपनी कीमती धरोहर। समयकाल का प्रहार हो मैं मुह खोल खडा ठगा सा ताकता वो तमाशा , सहसा वो चीत्कार मचाती शान्ति सहसा प्रकटित हुई मेरे बटुये से ।बह पड़ी नीर धार हो पश्चातापी नहा गया उस अग्नि की बारिश में । कुछ शमशानी खामोशी चीखती चीत्कारती मुझ लाश को नया जन्म देती,नयी उमंग भरती समा गई मुझ मे और उछाल दिया मुझे मेरे अपने आकाश में।अब मेरी खामोश शांति की बादल रूपी स्याही दहाडती है मेरे आकाश से  गडगडा के बरसती है मेरे अंबर से मेरे अपनों के हृदय रूपी पन्नों को मेरी बूँद से भिगोने को।निचोड लेना एै आकाश मेरी हरेक बूँद भिगाना हर उस पन्ने को जो पी सकता मेरी भीनी सुगंध।


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Saturday 14 February 2015

असमर्थ वृक्ष

असमर्थ वृक्ष : खडा  था मैं दो गाँवों की सीमा बीच ।कभी विभाजित इस ओर से उस ओर से मुझ ठौर।था खीचता यह त्रिकोण मेरी हर शाख।
आई सुदूर प्रांत से एक सुगंधित सी  किरण , देख असमर्थ हुआ मैं समझने में उस नरमी को। ताकता फिर विशाल अचरजगी से सब तमाशा, ढूंढता रहा जीवन भर यह नरमी का खजाना।दिखती तो जरूर थी उस बूँद की चमक उस क्षितिज पार, पर पा गया था खोना अपने बटवारे का इस मोड पर। आज ये पुष्प इस डाल पे है फूटता बतलाने को तैयार, अपने विवाह का भी निमंत्रण हो रहा तैयार।
अब तो ले जाओ गाँव वालों इसका हर एक पत्ता पत्ता,और भेज दो सबको निमंत्रण उस असमर्थ की  विदाई का।
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Friday 13 February 2015

Ocean of sky

Ocean of sky : Shakeless state has been so far throughout life now the tremors of my earth are blasting without considering the dreams of limitless boundaries I was bombarded to see.The shield couldn't stop the attack and existence moulded that spark of drop within to smiling 🎶 flute. This small air particle is spreading drop by drop and mesmerizingly opening the locks of each hole of this smiling flute.Every layer of this air is stretching its wings making my little pond to endless ocean ,spreading all around, flying without any flight . This aroma of endless ocean of sky getting poured into this world dancingly.



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अंधा प्रकाश

अंधा प्रकाश  :  आ रही थी कुछ सुगंध उसके होने से,था मैं भी उत्साहित उसके रंग में रंगने से।मिल रहा था कुछ अद्वितीय, गुलाबी सा क्षितिज आभासाता जैसे।साथ साथ उस से था प्रकाशित एक सुगंधित इन्द्रधनुष, जो ले जाता ता मुझ अधेड     
को नवजात के परे। कर जाता झंकारित उसका हर एक तार तार।थे बादल नयन मेरे चलते रस्तों के तले ।देख देख तेरे सूर्य को मैं मचलता हूँ अपने इस तहखाने से।अब देख ले एै सूरज तेरी बेबसी ,है  तेरा एक तारा कैद में तेरी।दाग अपनी किरण एक हृदय से अपनी  कर सकूँगा ग्रहणशीलता विस्तारित ,ताकि कर सकूँ प्रकाशित तेरी एक एक किरण ।तू है तेजवान इतना की हो गया है अब अंधा ।मिले मुझे कुछ दिये यदि,तो आऊंगा तेरी किरण को दिखाने रास्ता ताकि पहुँच सके तू उस उस तक जो न पहुंच सके तुझ तक।



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Wednesday 11 February 2015

सुलगते प्राण

सुलगते प्राण : उस की एक बूँद भर आई थी मेरे हिस्से उस सावन ,न था मेरा सूना समन्दर उसके लायक ।ढूंढते यह प्राण उस प्यास की वह धडकन जो तलाशती अपनी भूली लय ताल।मुँह फाडे खडा एक एक स्वर मेरे प्राण का । कुछ तो उपाय बैठे, कर सकूँ ग्रहण वह जन्मों से विस्मृत बूँद को ।न हूँ सामर्थ्यवान यदि ,कर दे अनंत काल से श्रापित इस कुंड को महासमुद्र,समा सकूँ तुझ बूँद का विशाल ममत्व, नहीं तो कर दे इस धधकते प्राण को सूक्ष्मतम से सूक्ष्मतर, हो सकें यह सुलगते प्राण कुछ नरम तुझ तक ।हो न पायेगा यह प्राण सुसज्जित उस बूँद से , हो गया सामान तैयार बस्तियां उठाने को।


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जीवित पाषाण

जीवित पाषाण : कहाँ से उदगम हुआ ज्ञात नहीं कहाँ हूँ यह भी दूसरा बताता फिर भी वहीं हूँ।किसी पर्वत श्रृंखला की कोख से गिर टकरा इधर उधर आ पड़ा कुछ चोट खाता ,साथ और भी हैं कुछ छोटे कुछ बड़े पाषाण, सहसा ठिठुरन पायी   और बह चले संग नदिया की धार।स्थान छूट गया मेरा ,अज्ञात के भय से कम्पित दिलासा दिये बह चला कि यह बड़ा पाषाण तो देगा साथ पर बीच राह ही हो गया सीना तान किनारे ,पूछने पर झिटक दिया साथ ,कडकडा उठा मुझे रहना है यहाँ, गर्वमंडित खडा रहा किनारे वह एक दम्भी चट्टान।मैं बह चला घिसता अपने और किनारों की ओर देखता,वह खडे रहे किनारों पर अपने तीक्ष्ण चुभन वाले कोने के साथ।था बह रहा गीला हो उसी नदी के साथ,मिटा रही मेरे सारे तीक्ष्ण दुर्गुण रेत पानी के साथ।अब तो वह तीक्ष्णता नहीं रही ,रह गया बस मुझ में सभी टक्करों की चोटों का आभास।वाह मेरी बाहरी त्वचा भी तराश दी गई,कैसा अदभुत बदलाव ।वह चुभन कहाँ गई ,यह तो भीतर बाहर के रूपांतरण का होना हुआ एकसाथ।कहीं पडा हुँ या था ,किनारे ही अब आ लगा था।अब मैं ,कुछ जल कुछ पाषाण कुछ आकाश हो चुका था ,जब चला था तो सिर्फ पत्थरमय चेतना था,अब विस्तारित हो तीन तत्वमय हो गया।अरे यह क्या किसी ने उठा लिया, मन्दिर में अरे यह क्या कुछ बिछड़े पुराने पाषाण कुछ आकृतियुक्त भगवान रूप लिए हैं।बडा गिडगिडाया अब रोक दिया गया ,अब कोई नहीं सुनेगा मेरी कराह, कैसे कहूं अपने भाव अब नहीं मेरी आवाज कोई सुनने वाला । कोई जीवित ना रहा  ।मुझ जीवित पाषाण को सुन सके नहीं है कोई सप्राण।लग रहे हैं सब मुझ पाषाण से ज्यादा पाषाण।


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Tuesday 10 February 2015

नासमझ पत्ता

नासमझ पत्ता : झाँक रहा था अपनी डाली के उस सूक्ष्म रन्ध्र से मैं ,एैसा ऊर्जा का अकल्पनीय अतिरेक अहसास जैसे नवजात के कोमल शरीर को जननी से सुगंधित होता एैसा मैं फूटा अपनी डाली से ,धीमे धीमे मेरा एक एक अंश एक एक अणु कम्पायमान हुआ उस विचित्र वातावरण की सुगंध से।सम्पूर्ण वृक्ष उत्सव मना रहा मेरे खिलने का ,डाली डाली मुझ में ममता उडेलती दिखी । बन्धु पत्तियां कुछ नई कुछ पुरानी कुछ प्रेममय निहारती कुछ ईर्ष्यामय घूरती रही।सभी मेरी डाली पर अपने स्वघोषित अधिकार की घोषणा करती दिखी।मैं समझा मेरी ही तो है इस से आना हुआ मेरा, कहाँ यह छोडेगी मुझे ,अकस्मात सकपकाया मैं, एक बन्धु छोड़ गया अपनी डाली,इधर युवा हुआ मैं अपनी प्रिय शाखा से स्नेह के स्वप्न से बाहर आता हुआ उधर मेरी प्यारी शाखा का मेरे से भी स्पर्श लगातार छूटने लगा,पूछा क्यों कुछ ना बोली।मेरा अंश - अंश ,कण-कण घबराहट से काँप गया कि मेरी शाखा छूटेगी अब क्या करूँगा कैसे क्यों छोड़ेगी फूट पड़ा सागर मेरा,सहसा अलग कर दिया गया गिरता देख रहा अपने को  तुझ से। समझ हो गयी उत्पन्न अब ना कहुँगा यह मेरी वह मेरा।तुझसे छूटा तेरा यह पत्ता।

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अनपढ हृदय

अनपढ हृदय : यहाँ कोई कक्षा नहीं कोई पूछने बताने वाला नहीं,मैं तो बस बिना देखे सुने अपने समय काल का निर्वहन करता चल रहा हूँ।कोई आता भी है उसे अपने स्वभाविक गुण से अपना प्रेम रूपी भोजन परोस देता हूँ स्थान भी दे देता हूँ पर न जाने सभी इतने सभ्य की अपने गुप्त गुण को हमेशा विस्तारित करते और उसे हि छिद्रित करते जो स्थान उसे प्रेम परोसता।अब तो मेरा स्थान नहीं दिखता, कितना पारदर्शी था मैं परन्तु इतने छिद्रों ने तो अब,अपारदर्शी बना दिया।पूर्ण रूप से नग्न बाल्यावस्था की मधु झरती रहती थी मुझ से ,न जाने कब प्रौढ़ हो अपने को छिपाने लगा।कहा था कि मुझ हृदय में ही तो तू बसता है,ये देख तेरा बसेरा उजाड़ तुझे ही खानाबदोश कर दिया।अब मैं तो रहा नहीं, कभी कभी तेरी सुगंध यहाँ रखे तेरे वाद्य यन्त्रों से सुनाई देती है।इसी लालसा में शायद अलविदा करुँ कि तुझ तक की सीढ़ी यहीं से जाती है वरना इस आधुनिक चिकित्सकों ने तो पेस मेकर की रस्सी तय्यार कर रखी है।

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Monday 9 February 2015

अपरिचित आकाश

अपरिचित आकाश: कौन से कोने में से झाँकू तेरे होने के मानने मे भी विश्वास नहीं आता ।सिर्फ चर्म के उस पार ही दिखाई देता है ना ।है तो समा क्यों नहीं जाता मुझ में और खींच क्यों नहीं लेता मुझे उस ओर।यूँ ही  हो रहा मैं हिमालय विशाल जैसे कितना भी फैल रहा हूँ फिर भी अनजान तेरे को होने में ।दे देता उधार कुछ क्षण सूर्य को, कुछ हो जाने को ,समुद्र का जल भी ताकता तुझे , ऊपर उठने को ।

Sunday 8 February 2015

एक आत्मा


एक आत्मा : कैसे जिया करुंगी माँ।सुना है माँ मेरे केंद्र की वेदनामय स्पंदन की अनुभूति मेरे अनुभव में आने से पहले तुझ को आन्दोलित कर देती है। यह ज्वाला जो छीन रही मुझे मेरे मुझ से तू ही तो वह मुझ है माँ।मैं सक्षम नहीं हुआ कभी तेरी तरह की समेट लूँ सर्वस्व ।उफ्फ्फ  मेरी दमित भावनात्मकता को किसी भी प्रकार से प्रकट करने की अपनी असमर्थता का इतना तीक्ष्ण परिणाम ।
  किनारा कर पाऊँ तेरे विशाल ममता के सागर से एैसा सामर्थ्यवान नहीं जन्मा तूने।हैं तेरे महासागरों में कई मोती माँ, मै तो तुझ में समाने लायक स्वाति की वह बूँद भी नहीं हो पायी।देख लेती तू सबकी चमकदार आँखें ,देख मेरी भी बंद आँखों के पीछे गिरता हुआ सूखा समुद्र ।क्या हो गया जो मैं पापी अज्ञानी धूर्त हूँ मैं नहीं सक्षम कुछ और तेरे बिना देखने में, दे दे दिशा ही, जहां हो समाप्त तेरा किनारा।चल पड़ूँगा तेरे अनंत किनारों से किनारा करने।


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शून्य की असामर्थ्यता

यहाँ कौन किसको समझे कौन किसको समझने आया , स्वयं को ही न समझ पाया दुसरे को क्या यहाँ कोई क्या समझेगा। स्वयं के भ्रम में इतना खोया जीव स्वयं को कहाँ समझ पायेगा। स्वयं 
में व्याप्त उस प्रेममय अबोध को अपने समझदार भ्रामक संसार के चरणो द्वारा कुचल के उसके अचंभित भाव रुपी अश्रुओ को बिन मौसम बारिश की तिरस्कृत बूँद मान बचा गया वो अपना आँचल। तिरस्कृत बूँद ही सही उस बूँद के रुदन की पुकार कभी तो वह समझदार ,ह्रदय केंद्र में उतारेगा जो उसके मौन में उत्पन्न होने वाली पुकार को शब्द के स्तर पे लाने के बावजूद शून्य की असामर्थ्यता के कारण शब्द में नहीं पिरो सकता।

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